अग्रसर हुई। अमीर ने देखा तो विमूढ़ हो गया। इस प्रकार इच्छा करके मृत्यु को वरण करने का अर्थ वह समझ ही न सका। परन्तु एक चतुर रण-पण्डित की भाँति वह पैंतरा काट घूम पड़ा। वह नहीं चाहता था कि राजपूत पीछे से आक्रमण करके उसकी सेना को विशृंखल कर दें। उसने झटपट रसद और जल से भरे हुए ऊँट, अशर्फियों से लदे हुए हाथी और सेना का एक भाग सालार मसऊद की अध्यक्षता में द्रुतगति से मरुस्थली में प्रविष्ट कर दिया। सेना के दूसरे भाग को जिसमें हाथी, ऊँट और तीरन्दाज थे, अपने प्रिय गुलाम समरू की कमान में धीरे-धीरे व्यवस्था से मरुस्थली में आगे बढ़ाया। इसके बाद वह अपने चुने हुए बारह हज़ार बलूची सवारों को लेकर राजपूतों पर बाज की भाँति टूट पड़ा। गिने-चुने राजपूत अपना काट दिखा-दिखाकर धराशायी होते गए। घोघाबापा के सिर पर सैकड़ों तलवारें छा गईं। यह तेजस्वी वृद्ध जिस प्रकार वीरता से तलवार चला रहा था उसे देखकर सुलतान महमूद आश्चर्यचकित रह गया। उसने बहुत चाहा कि वृद्ध राणा को जीवित पकड़ लिया जाए, पर यह किसी भाँति सम्भव न था। राणा की केसरिया पाग, तलवारों की चकाचौंध में चमकती और डूबती रही। यह युद्ध न था, साका था। अमीर महमूद भी इस शत्रु का लोहा मान गया। इसके सम्मान की रक्षा के लिए उसने अपनी तलवार भी म्यान से बाहर नहीं की। देखते ही देखते आठ सौ राजपूत और तीन सौ अन्य व्यक्ति कटकर खेत रहे जिनमें घोघाबापा के चौरासी पुत्र, पौत्र और परिजन भी थे। घोघाबापा भी अपने हाथ से काटे हुए शत्रुओं की लाशों पर गिरकर कैलास-वासी हुए।
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