पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/१०६

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सत्रहवॉ प्रस्ताव

पड़ गया, नस-नस ढीली हो गई। जो समझे था कि मैं अपनी चालाकी से बच जाऊॅगा, और पुलिस को भी अपना तरफदार कर लूॅगा; वे सब उम्मीदे जाती रही, गिड़गिडाकर बोला-"अच्छा, तो अब मेरे निस्तार की क्या सूरत हो सकती है ? आप निश्चय जानिए, मै बेकसूर हूँ, बाबू का मेरा दिन-रात का साथ है, इससे आपको मेरी ओर भी शक है, और मैं भी खरावी में पड़ता हूँ।"

दारोगा–जी हॉ, ठीक है, आप बिलकुल बेकसूर हैं। तुम समझते हो, मेरे आमाल छिपे हैं।जनाब, आप ही ने वाबू को भी खराव किया। आप-ऐसे लोगों का ऐसे-ऐसे मुकहमों से निस्तार होना मानो आवारगी और बुराई को फरोग़ पाने के लिये इशतियालक देना है। अच्छा, आप तो अब रवाना हों, उन दोनो की भी फिकिर की जायगी। नकीअली। लो, तुम इन्हें ले चलो, मै अब बाबू और बुद्धदास के लिये जाता हूँ। खैर, बाबू को तो मै जानता हॅू, बुद्धदास का पता क्योंकर लगाऊॅ ? वाबू नदलाल, आप बतला सकते हैं, बुद्धदास कहॉ मिल सकेगा। मैं समझता हूँ, बुद्धदास का नंबर तुमसे बहुत चढ़ा-बढ़ा है, बल्कि उसी के भरोसे तुम्हे भी ऐसे-ऐसे कामों के लिये हिम्मत होती है।

नंदू–मै सच कहता हॅू बुद्धदास से मुझे कोई सरोकार