पेचीदह झगड़े आ पड़ते है कि कुछ कहा नहीं जाता। उस दिन उस जौहरी के दस हजार के जवाहिरात उड़ गए। मुझे मालूम है, जिन लोगो का यह काम है। पता भी मैने लगा लिया है, पर जौहरी मरदूद बड़ा कजाक काइयाँ है, एक झझी नहीं गलाना चाहता और बातों- ही-बात मे काम निकालना चाहता है। मैने सोच रक्खा है, आधे पर मामिला तय करेगा, तो खैर बेहतर, नही बचा कुल से हाथ धो बैठेगे। ५०० रुपए रोज विना पैदा किए दातुन करना हरान है। अच्छा, फिर हमारा गुजारा भी तो किसी तरह होना चाहिए। बड़े-बड़े नबाबो का जो खर्च न होगा, वह हम अपने जिम्मे बाँधे हैं। १० रुपए रोज बी बन्नो को ज़रूर हो चाहिए ; किले-सी बड़ी भारी इमारत जुदा छेड़े हुए हैं. जिसमे लक्खों रुपए सोख गए। हमनिवाले दस-पाँच दोस्त दस्तरखान के शरीक न हों, तो नाम में फर्क पडे । चार- चार फिटन, कोतल सवारी के घोडे वगैरा का सब खर्च कहाँ से आवे,आखिर अल्लाहताला को हमारी भी तो फिकिर है। रोज नया शिकार न भेजे तो इतना बड़ा अटाला कैसे पार हो–(पीनक से जग) कोई है। अवे ओ फहमुआ ! (थोड़ा ठहर ) अवे ओ फहमुआ ! (थोड़ा ठहर ) अवे ओ फहमुआ ! मर गया क्या ?
फहमुआ–हॉ साहब हे आएऊ (ऑख मीजता हुआ नीद में भरा आता है)