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बीसवाँ प्रस्ताव
भयंकर बयार बह रही है कि कहीं पता न लगता (कान में कुछ कह)।
चंदू–अच्छा, तो तुम इतनी फिकिर रक्खो कि बाबू बाहर न निकलने पावें, मै सब ठीक कर लूँगा।
बीसवाँ प्रस्ताव
बन्धनानि किल सन्ति बहूनि
प्रेमरज्जुकृत बन्धनमन्यत्;
दारुभेदनिपुरणोऽपि षडङ्घ्रि-
र्निष्क्रियो भवति पङ्कजबद्धः।*[१]
पाठक ! आज अब यहाँ हम प्रेम-पुष्पावली के दो भ्रमरों का कथानक आपको सुनाना चाहते हैं। कुछ लिखने के पहले आपको सावधान किए देते हैं कि हमारे ये दोनों भ्रमर निःस्वार्थ प्रेमी हैं। इन्हें आप उस कोटि के प्रेमी न सम- झना, जैसा इन दिनों वहुतेरे अपना मतलब साधने के लिये परस्पर प्रेमी बन जाते हैं। जरा भी अपने स्वार्थ में चूक हो जाने पर मैत्री क्या, बल्कि सॉप और नेवले का-सा हाल उन दोनों का हो जाता है। हमारे पाठक पंचानन से परिचित होंगे, जिनकी भेट हम अपने पढ़नेवालों को पहले करा चुके
- ↑ * यों तो संसार मे बहुत प्रकार के बंधन हैं, किंतु प्रेम की डोरी का
बंधन कुछ और ही प्रकार का है । देखिए, जो भ्रमर काठ के छेदने में निपुण
है, वही भ्रमर प्रेम के वश में हो कमल में बंधकर लाचार हो जाता है।