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सौ अजान और एक सुजान

के चपरासी बैठे हैं ?" यह सुनते ही सेठानी के हाथ-पॉव फूल गए, घबड़ा उठी–"हाय ! सब तो गया ही था, अब क्या सेठ के नाम में भी कलंक लगा चाहता है ? हाय ! कपूत किसी के न जन्में–अच्छा, तो जा चदू को बुला ला, तब तक मैं जा उन दोनो बाबुओं को जगाती हूँ, और सावधान किए देती हूँ।"

सेठानी_(मन में ) हाय ! मुझ निगोड़ी को मौत न आई।सेठ के स्वर्गवास होते ही सोने का घर छार में मिल गया । सच है "पूत सपूते तो धन क्या. पूत कपूते तो धन क्या" सेठ के समय का राजसी ठाठ तो न जानिए कहाँ बिलाय गया । किसी तरह अपनी बात बनी रहे और जिंदगी के दिन कटें, इसी को मैं अपना सौभाग्य मानती थी, सो उसमें भी बट्टा लगा। हाय ! तिमहले पर दोनो बाबू सो रहे हैं ; इतनी सीढ़ियाँ मुझसे चढ़ी न जायँगी, और यहॉ से पुकारना ठीक नहीं, तो अब क्या करूँ? अच्छा, चदू को आने दो।

चंदू भी अचंभे में आया कि आज इतने सवेरे सेठानी ने क्यों बुलाया। बाहर पुलिस का पहरा देख उसी खिड़की से भीतर गया।

चंदू–बहूजी, क्या आज्ञा होती है ?

सेठानी–(रो-रोकर ) चंदू, मैं तुम्हारे ऋण से उऋण नहीं