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इक्कीसवाॅ प्रस्ताव

तकरीर और बहस की बदौलत । वाह ! धन्य विधाता.! यह जो प्रचलित है कि "बात की करामात' सो क्या ही सटीक है। बात में बात पैदा कर देना अॅगरेजी ही कानून हमे सिखाता है। पर तोफगी तो यह, जैसा मसल है "चोर से कहो चोरी करे, शाह से कहो जागता रहे।" इसी का नाम है। हमे क्या, हमे तो दिलबहलाव चाहिए, हम मुक़दमों की पेचीदगी ही में अपना दिलबहलाव निकाल लेते हैं। पर सच पूछो तो ( Litigation ) कानून की बारीकियाँ ही बेईमानी और फरेब लोगों को सिखा रही हैं। इसी से मुझे यही इसमें बचाव की सूरत मालूम होती है कि बाबू जो कुछ सच्चा हाल हो, अदालत मे जा एकरार कर दे। कानून की मशा है कि जुर्म करनेवाला कुसूरवार नहीं है, बल्कि वह जो उस जुर्म का उसकानेवाला होता है। ऐसा होने से मुकदमे में वहस की कई सूरतें पैदा हो जायॅगी। कदाचित् बड़े सेठ के रईस घराने पर रहम कर हाकिम बाबुओं की रिहाई कर दे।


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इक्कीसवाँ प्रस्ताव

खल उघरे तत्काल ।

मसल है 'सबेरे का भूला सॉझ को आवे, तो उसे भूला न कहना चाहिए।"

दूसरे दिन चंदू बाबुओं के पास गया, और पाला की मारी, मुरझानी कली-सी उनके मुख की छवि पाय चंदू के मन