तीसरा प्रस्ताव
गुणैर्हि सर्वत्र पदं निधीयते *
उसी नगर में एक महापुरुष विद्वान रहते थे। दूर-दूर देश के छात्र और विद्यार्थी इनके स्थान पर पढ़ने के लिये टिके रहते थे। नाम इनका शिरोमणि मिश्र था। गुण में भी यह वैसे ही विद्वन्मंडलीमंडन-शिरोमणि के समान थे। अध्यापकी के काम में दूर दूर तक कालाक्षरी के नाम से प्रसिद्ध थे, अर्थात् काला अक्षर-मात्र शास्त्र का कैसा ही दुरूह और कठिन कोई ग्रंथ होता, उसे यह पढ़ा देते थे। अनुपपन्न, गरीब विद्याथियों को, जिन्हें यह परिश्रमी, पर सर्वथा असमर्थ देखते थे, यथाशक्ति उनके गुज़रान के लायक छात्रवृत्ति भी देते थे। सेठजी इनको बहुत मानते थे, इसलिये कितनों को तो शिरोमणिजी अपने पास से देते थे, और कितनों को सेठ से दिलाते थे। सेठ इनका बड़ा भक्त था, और इन्हें मूर्तिमान प्रत्यक्ष देवता समझ एक बार दिन-रात-भर मे इनका दर्शन अवश्य आय कर जाता था। मिश्रजी जैसे श्रुताध्ययन-संपन्न वैसे ही सद्वृत्त और सदाचारवान् थे। "न केवलया विद्यया तपसा वापि पात्रता", सो इनमे न केवल विका ही, किंतु तपस्या भी पूरी थी। स्वभाव के अत्यंत गंभीर और देखने में साक्षात् गणेश की मूर्ति मालूम होते थे। इनका चौड़ा लिलार
* गुणों की सब जगह क़दर होती है।