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पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/१९

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सौ अजान और एक सुजान


और दमकती हुई मुख की धुति दामिनी की दमक के समान देखनेवाले के नेत्र को मानो चकाचौंधी-सी उपजाती थी। इनकी सत्पात्रता का कहना ही क्या। याज्ञवल्क्य लिखते हैं—

कुक्षौ तिष्ठति यस्यान्न विधाभ्यासेन जीर्यति;
कुलान्युद्धरते तस्य दश पूर्वाणि दशापराणि।
*

सो अध्यापकी में तो यह यहाँ तक परिश्रम करते थे कि चार बजे तड़के से आठ बजे रात तक निरंतर पढ़ाया करते। केवल मध्याह्न में तीन-चार घंटे विश्राम लेते थे। सबेरे से दस बजे तक भाष्य, वेदांत, पातजल आदि आर्ष ग्रंथों का पाठ होता था, और दूसरी जून काव्य, कोष, व्याकरण, गणित, ज्योतिष इत्यादि का। सिवा इसके जिस जून जो कोई जो कुछ पढ़ने आता था, वह उसे विमुख नहीं फेरते थे। किंतु केवल इतना विचार अवश्य रहता था कि असत् शास्त्र या निरीश्वरवादवाले ग्रंथ, जैसे कपिल का दर्शन, पहली जून नहीं पढ़ाते थे। प्रातःकाल के समय जब त्रिपुंड्र और रुद्राक्ष धारण किए कोड़ियों विद्यार्थी अपना-अपना आसन बिछाय संथा लेने को इनकी गद्दी के चारों ओर घेरकर बैठ जाते थे, उस समय यह मालूम होता था, मानो ऋषि-मंडली के बीच पद्मासन पर ब्रह्मा विराजमान हों। उस समय देखनेवाले के चित्त में यही भासती थी कि धन्य है इन


* जिसका खाया हुआ अन्न पढ़ने-पढ़ाने की मेहनत से पचता है, वह अपने अगले-पिछले दस-दस पुरखों को तार देता है।