समायाति यदा लक्ष्मीर्नारिकेलफलाम्बुवत् ;
विनिर्याति यदा लक्ष्मीर्गजभुक्तकपिन्थवत् ।
छठा प्रस्ताव
किमकार्य कदर्याणाम् ×
ग्रीष्म की ऋतु है। जेठ का महीना है। दोपहर का समय
है। सब ओर सन्नाटा छा रहा है। तिग्मांशु की तीखी खर-
तर किरणों से समस्त ब्रह्मांड तच लोह-पिड का अनुहार
कर रहा है। क्या स्थावर, क्या जंगम, यावत् पदार्थ
सब पानी-ही-पानी रट रहे हैं । जिसे छुओ, वही अंगारे-सा
गरम बोध होता है, मानो त्वंगिद्रिय शीत-स्पर्श से निराश हो
जल में शैत्य गुण का निर्देश करनेवाले (शीतस्पर्शवत्याप.)
कणाद महामुनि की बुद्धि का भ्रम मान बैठी है । एक तो
अत्यंत दंडायसान दिन, उसमें ललाटंतप चंडांशु के प्रचंड
आतप के ताप से संतप्त, शीतलच्छाया का सहारा लिए हुए,
यह जंगम जगत् भी स्थिर भाव धारण कर, मौन अवस्था मे,
दुःखदायी ग्रीष्म के उच्चाटन का मानो मंत्र-सा जप रहा है।
- लक्ष्मी जब आने लगाती है, तो नारियल के फल में पानी के समान
आती है। भीतर पानी इकट्टा रहता है, बाहर किसी को नहीं पता लगता। वही जब जाती है, तो हाथी के खाए कैथे के समान होता है। कै्था समूचा हाथी लीद कर देता है, पर भीतर बसूदा गायब रहता है।
x दुष्ट तथा नीच के लिये, कोई ऐसा बुरा काम नहीं है, जिसे वे न कर सकें।