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पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/३१

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सौ अजान और एक सुजान


करना ही चाहिए।" तीसरा बोला-"इन सजावटों के लिये लाख-पचास हजार रुपए आपके लिये क्या हक़ीकृत हैं। मैं हाल में लखनऊ गया था,एस० वी० कंपनी की दूकान पर शीशे-आलात वगैरह का नया चालान आया है। मैं समझता हूँ,आपके कमरों की सजावट के लिये पंद्रह-बीस हजार,के शीशे काफी होंगे।” बाबू साहब इन धूतों की चापलूसी पर फूल उठते थे। जिसने जो कुछ कहा,तत्काल उसे मंजूर कर लेते थे। आठ बार,नौ तेवहार लगे ही रहते थे। दिन बारा-बगीचों की सैर,यार दोस्तों के मेल-मुलाकात में बीतता था;रात नाच-रंग और जियाफ्तों की धूमधाम में कटने लगी।दिल्ली,घागरा,बनारस,पटना आदि के नामी तायके सदा के लिये अनंतपुर में बुलाकर टिका लिए गए। अपने घर का सब काम-काज देखना-भालना तो बहुत दूर रहा,बड़े बाबू साहब को हुडी-पुरज़ों पर दस्तखत करना भी निहायत नागवार होता था। मुनीम और गुमाश्तों की बन पड़ी। सब लोग अपना-अपना घर भरने लगे। इधर ये दोनो हाथों से दौलत को उलच-उलच फेकते थे,उधर मुनीम-गुमाश्ते तथा और कार्यकर्ता,जिनके भरोसे इन दोनों ने सब काम छोड़ रक्खा था अपना घर भरने लगे।इसी दशा में हीराचंद के सुकृत धन का हाल सौ जगह से रसते हुए घड़े का-सा हो गया,जो देखने में कुछ नहीं मालूम होवा,किंतु थोड़े ही अरसे में घड़ा छूछे-का-छूछा रह जाता है। सच है-