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सौ अजान और एक सुजान

थे। नाक फसड़ी, होठ मोटे, आँखे घुच्चू-सी. माथा बीच में गडढेदार, चेहरा गोल, रंग काला मानो अंजन-गिरि का एक टुकड़ा हो । पढ़ना-लिखना तो इसके लिये "काला अक्षर भैस बराबर" था। जब यह मा के गर्भ में था, तभी इसके बाप ने यमपुर को राह ली। केवल नाम-मात्र के ब्राह्मण इन पुरोहितों की पहले तो सृष्टि ही निराली होती है कि पुरोहिती कर्म से जीनेवाले सौ-पचास इकटू किए जाय, तो बिरले एक-दो उन में ऐसे निकलेंगे, जो आवारगी, उजड़पन और छिछोरेपन से खाली होंगे । विद्या, गुण अथवा किसी प्रकार की योग्यता का तो जिक्र ही क्या, उनमें साधारण रीति की मनुष्यताही हो, तो मानो बड़ी कुशल है । तब इस रंडा पुत्र का कहना ही क्या । इस अभागे को तो जन्म ही से कोई कुछ कहने-सुनने- वाला न था।

एकेनापि कुपुत्रेण कोठरस्थेन वहिना ;

दह्यते तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं यथा * ।

कुपुत्रों में भी यह उस तरह का कुपूत न था कि खोडर में रक्खी आग के समान केवल अपने ही कुल को भस्म करे, अपिच जहाँ-जहाँ इसकी थोड़ी भी पैठ या संचार हो गया, वहॉ वहाँ इसने भरपूर अपना-सा उस घरानेवालों को कर दिखाया। यह सदा इसी ताक में रहा करता था कि किस


  • किसी एक खोडर में रक्खी हुई आग से जैसे कुल वन जल जाता है, वैसे कुल मे कुपुत्र के उपजने पर समस्त वंश-का-वंश नष्ट हो जाता है।