पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४
सौ अजान और एक सुजान


अपेक्षा कुछ-कुछ समझ आ चली थी, मन में भाँति-भॉति का हरन-गुनन करते टाइमपीस पर घंटा और भिनट गिनते नींद न पड़ी। रात भोर हो गई। चिड़िया चहचहाने लगीं; स्कूल के पढ़नेवाले परिश्रमी बालक ब्राह्मी वेला समझ अपना-अपना पाठ घोख-घोख सरस्वतीदेवी का अनुशीलन करने लगे। प्रत्येक घरों में वृद्धजन समस्त दिन के कल्याणसूचक हरि के पवित्र नामोच्चारण में तत्पर हो गए; चंडूखानों में अफीमची और चंडूबाजों की रात-भर की पार्लियामेंट के बाद पीनक की सुखनींद का प्रारंभ हो गया; आस-पास मंदिरों में मंगला- आरती के समय का सूचक घड़ियाली और शंख-शब्द सुन भक्त जन जय-जय कहते दर्शन के लिये दौड़े फेरीवाले भिख- मंगे भोर ही अलापते गलियों में घूमने लगे; पौफट होते ही अपनी प्रेयसी निशा-नायिका का वियोग समझ चंद्रमा के मुख पर उदासी छा गई । बने-बने के सब साथी होते हैं, बिगड़े समय कोई साथ नहीं देता, मानो इस बात को सिद्ध करते हुए अपने मालिक चंद्रमा को विपत्ति में पड़ा देख नमकहराम नौकर की भॉति तारागण एक-एक कर गायब होने लगे ; अथवा काल-कैवर्त ने आकाश-महासरोवर में निशारूपी जाल बड़ी दूर तक फैलाय जीती हुई मछली की भाँति सबों को एक साथ समेट लिया; अथवा यों कहिए कि सूर्य लका कबूतर की तरह अपनी काबुक से निकलते ही चावल की बड़ी-बड़ी किनकी-से इन तारों को एक-एक कर