पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/४६

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आठवाॅ प्रस्ताव


सबों को चुग गया ; अथवा प्रातः संध्या अपने रक्तोत्पल- सहश हाथ को सब ओर फैलाय-फैलाय अपनी प्रिय सखी. वासर-श्री का उसके कांत दिनमणि सूर्य से मिलने का समय जान, इन तारा-मौक्तिकों का हार उसके लिये गूंथने को इन्हें इकट्ठा कर रही है। अपने विजयी प्रभाकर की विजय-पताका- समान सूर्योदय की लाली सब ओर दिशा-विदिशाओं में छा जाते ही अंधकार का हृदय-सा मानो फट सौ-सौ टुकड़े हो गया। शनैः-शनैः उदयाचल बालमदार के फूलों का गुच्छा-सा, अथवा पूर्व-दिगंगना के लिलार पर रोली का लाल बेदा-सा, या उसी के कान का कुंडल-सा या आसमान-गंबज पर सोने का कलश-सा अथवा देवांगनाओं के मस्तक का शीस- फूल-सा अथवा चराचर विश्व-मात्र को निगल जानेवाले काल महासर्प का अडा-सा सूर्य का मंडल कमल के वन को प्रफुल्लित करता हुआ, चक्रवाक के विरहाग्नि को बुझाता हुआ, जगल जगत्मात्र के नेत्रों को प्रकाश पहुॅचाता हुआ श्रोत्रिय धर्मशील ब्राह्मणों को संध्या और अग्निहोत्र आदि कर्म मे प्रवृत्त करता हुआ पूर्व दिशा मे सुशोभित होने लगा।

सब लोग अपने-अपने रोज़मरे के काम मे प्रवृत्त हुए। बाबू भी रात-भर जागने की खमारी में अलसाने-से शौचकर्म और दतून-कुल्ला से फारिग हो अपने कमरे मे आबैठे । कितु आज रोज़ का-सा इनका चेहरा खश न था। देखते ही भासित हो जाता था कि चित्त में इनके कोई गहरी चोट का धक्का लग गया