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सौ अजान और एक सुजान


रिश्ता तथा हबेली में किस बात की ज़रूरत है, इसकी सब सलाह और पूछ-ताछ नित्य घड़ी-आध घड़ी अपनी मां से किया करता था। इसकी मां रमादेवी अब इसे सुचाल और क्रम पर देख मन-ही-मन चदू की बड़ी एहसानमंद थी, और जी से उसे असीसती थी । चदू का इन बाबुओं से यद्यपि कोई लगाव न रह गया था, पर रमादेवी से सब सरोकार इसका वैसा ही बना रहा, जैसा हीराचद से था। रमा बहुधा चंदू को अपने घर बुलाती थी, और कभी-कभी खुद उसके घर जाय इन बाबुओं का सब हाल और रग-ढंग कह सुनाती था । चदू पर रमा का पुत्र का-सा भाव था. बल्कि इन दोनो की कुचाल से दु:खी और निराश हो चंदू को इसने अपना निज का पुत्र मान रक्खा था । रमा यद्यपि पढ़ी- लिखी न थी, पर शील और उदारता में मानो साक्षात् शची- देवी की अनुहार कर रही थी। पुरखिन और पुरनियॉ स्त्रियों के जितने सद्गुन हैं, सबका एक उदाहरण बन रही थी। सरल और सीधी इतनी कि जब से अपने पति हीराचंद का वियोग हुआ, तब से दिन-रात में एक बार सूखा अन्न खाकर रह जाती थी। सब तरह के गहने और भाॅति-भॉति के कपड़ों के रहते भी केवल दो धोतियों से काम रखती थी। कितनी रॉड-बेवाओं और दीन-दुखियाओं को, जिन्हें हीराचंद गुप्त रूप से कुछ-न-कुछ दिया करते थे यह बराबर अपनी निज की पॅजी से, जो सेठ इसके लिये अलग कर गए थे, बराबर