देती रही। शील और संकोच इसमें इतना था कि जो कोई
इसे अपनी जरूरत पर आ घेरता था. उसके साथ, जहाॅ तक
बन पड़ता था, कुछ-न-कुछ सलूक करने से नहीं चूकती थी।
घर के इंतजाम और गृहस्थी के सब काम-काज में ऐसी दक्ष
थी कि बहुधा जाति-बिरादरीवाले भी काम पड़ने पर इससे
आकर सलाह पूछते थे। बूढ़ी हो गई थी, पर आधा घूघट
सदा काढ़े रहती थी। केवल नाम ही की रमा न थी, गुण भी
इसमे सब वैसे ही थे, जिनसे इसका रमा यह नाम बहुत
उचित मालूम होता था। प्रायः देखा जाता है कि सास और
बहुओं में और बहू-बहू में भी बहुत कम बनती है, और इस
न बनने मे बहुधा हम उन कमबख्त सासों ही का सब दोष
कहेंगे, क्योंकि बहू बेचारी का तो पहलेपहल अपने मायके से
ससुर के घर मे आना मानो एक दुनिया को छोड़ दूसरी
दुनिया में प्रवेश करना है, फिर से नए प्रकार की जिंदगी में
पॉव रखना है , जिसे यहाँ कुछ दिनो तक सब जितनी बातें
नई-नई देख पड़ती हैं। जैसे कोई पखेरू, जो पहले स्वच्छंद
मनमाफिक विचरा करता था, पिंजड़े मे एकबारगी लाय बंद
कर दिया जाय, सब भॉति पराधीन, आजादगी को कभी
ख्वाब में भी दखल नहीं, अतिम सीमा की लाज और शरम
ऐसा गह के इसका ऑचल पकड़े रहती है कि अभी एकदम के
लिये भी छुट्टी नहीं दिया चाहती। इस दशा में जो चतुर-सयानी
घर की पुरखिने है, वे ऐसे ढग से साम-दाम के साथ नई बहुओं
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