लोगों का एक गण-का-गण था, जो महादेव के गण नदी-
भृंगी के समान इसके आश्रित थे। उन सगे मे एक इसका
बडा विश्वासपात्र था । नाम इसका रघुनदन था, पर नदू
इसे रग्घू कहा करता । र घू जाति का ब्राह्मण था, पर कदयता
से अत्यत पामर महाशूद्र से भी गया-बीता था। केवल नामधारी
ब्राह्मण था । नंदू का कोई ऐसा काम न होता था, जिसमे
रग्घू मौजूद न रहे । सच तो यों है कि नदू इस रग्ब् का इतना
आश्रित हो गया था कि विना इसके नदू लु ज-पुज सा
रहता । तारबकीं के समान नदू जिस काम मे इसे प्रवृत्त
कर देता था, उसे पूरा होते जरा देर नलगती थी। बसता
जैसा उन बाधुओं का परिचारक और मुफ्तखोरा खुशागदी था,
वैसा ही रग्घू नदू बाबू का अनुचर था ( अतर उसमे और
इसमें केवल इतना ही था कि बसता निपट निरक्षर कुंदे-
नातराश था, पर रघू को अक्षरो से भेट थी। पर वही नाम-मात्र
को, इतना कि जिससे हर इसे पढ़ा-लिखा या साक्षर नहीं कह
सकते । वसंता निपट उजडऔर जघन्य था, कितु रग्धू चालाकी
में एकता और अमीरों का रत्व पहचान उन्हे खुश रखने
के हुनर मे बहुत प्रवीण था । जहाँ-जहाँ नदू आया-जाया
करता था, वहाँ-वहाँ रग्घू उसका पुछल्ला ही था। तब क्यों-
कर सभव था कि इसके चरण भी कहॉ न पधारं । इस द्वार से
प्राय अनंतपुर के छोटे-बडे रईम तथा आस-पास के ताल्लु-
केदारो से इसकी भरपूर जान-पहचान हो गई थी। यहाँ तक
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