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पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/५७

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सौ अजान और एक सुजान

खो बैठे, वरन् ऐसे-ऐसे लटके सीखे था कि किसी ऐसे बड़े मालदार नए उभरे हुए को ढूँढ़े, जिसे कोई रोकने-टोकनेवाला न हो, पर वह कमसिनी ही में खुदमुख्तार बन बैठा हो। नितांत अल्पज्ञता के कारण इतना मदांध और निर्विवेक था कि बहुधा अपने छिछोरपन और सिफलापन के सबब शिष्ट-समाज में कई बार भरपूर दक्षिणा पा चुका था, तो भी अपने छिछोरपन से बाज नहीं आता था। यदि कोई समझदार और तमीज़वाला होता, तो आत्मगौरव न रहने के रंज से समाज में फिर मुँह न दिखलाता। पर ग़ैरत को तो यह घोलकर पी बैठा था; इसकी आँख का पानी ढरक गया था। शरम और हया कैसी होती है, जानता ही न था। सच मानिए, शिष्ट समाज और शराफत के कलंक ऐसे ही लोग होते हैं, जो जाहिरा में दिखलाने को ऐसा रँगे-चुँगे चूना-पोती क़बर के माफिक बने-ठने रहते हैं कि बस, मानो रियासत के खंभ हैं, शिष्टता के स्रोत हैं, भलमनसाहत के नमूने हैं। पर भीतर पैठकर देखो, तो उनके घिनोने और मैले कामों से जी इतना घिनाता है कि ऐसों का संपर्क कैसा, मुख-मात्र के अवलोकन में महाप्रायश्चित्त लगता है। ऐसों के संपर्क से जो बचे हुए हैं, उन पर ईश्वर की मानो बड़ी कृपा है। आँख चुंधी, गाल फूले, चेचक-रू, कोती गरदन, पस्त कद, किंतु बनावट और सजावट से यह कामदेव से उतरकर दूसरा दरजा अपना ही कायम करता था। नंदू ही के समानशील