पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५६
दसवाँ प्रस्ताव

और तीन सनहकी के कुछ न था। असल मे इसका नाम क्या था, कौन जाने ; पर सब लोगों में हकीम फीरोजबेग कंदहारी अपने को मशहूर किए था। नंदू इसका सिद्धसाधक था। इसलिये जहाँ तक बन पड़ता, छोटे-बड़े सबों में इसकी बहुत-सी तारीफ कर-कराय इसका प्रवेश उस ठौर करा देता था। यह क्यों इसकी इतनो सिफ़ारिश करता था इसका भेद भी, आप धीरज धरे चले चलिए, खुली जायगा। इस बात की ताक में तो यह न जानिए कब से था कि किसी-न-किसी तरह हीरा- चंद के घराने में हकीम साहब का प्रवेश करावे; पर चद् के कारण, जो देखते ही आदमी की नस-नस पहचान जाता था, दूसरे हीराचद को स्त्री रमादेवी के कारण, जिसे हकीमी दवा तथा मुसलमानों से किसी तरह संपर्क रखने में घिन और चिढ़ थी, नंदू की कुछ चलती न थी। हकीम भी यह केवल नाम ही का हकीम था; हिकमत मुतलक न पढ़ा था । मुसलमानों में यह एक चलन है कि जो लोग कुछ पढ़े-लिखे होते हैं; और उन्हें कहीं कुछ जीविका का डौल न लगा, तो वे या तो हकीम बन जाते हैं, या मौलवी हो लड़कों को पढ़ा अपना पेट पालते हैं। पढ़ा-लिखा तो यह बहुत ही कम था: पर शीन-काफ का ऐसा दुरुस्त और बातचीत ऐसी साफ करता था कि कही से पकड़ न हो सकती थी कि यह मख है। तस्वी एकदम इसके हाथ से न छूटती थी। देखनेवाले तो यही समझते थे कि हकीम साहब बड़े दीनदार और खुदा-