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सौ अजान और एक सुजान


परस्त हैं, पर इस तस्वी से कुछ और ही मतलब निकलता था । तस्बी की गुरियों को जो वह जाहिरा में फेरा करता था, सो मानो इसकी गिनती गिना रहा था कि इतनों को मै अपनी चालाकी का शिकार बना चुका हूँ। तस्बी फेरते-फेरते जो कभी-कभी आँख मूंद लेता था, सो मानो बक-ध्यान लगा- कर यह सोचता था कि नए असामियों को अब क्योंकर चंगुल में लाऊँ।

नदू बहुधा बड़े बाबू से हकीम साहब की तारीफ किया करता था। दो-एक बार अपने साथ ले भी गया । पर सिवा बंदगी सलाम और रामरमौअल के पहले के माफिक मुखातिब अपनी ओर तथा हकीम की ओर उन्हें न देख मन-ही-मन मसोस कर रह जाता, और चंदू को सैकड़ों गालियाँ दिया करता कि इस खूसट के कारण मेरा जमा-जमाया कारखाना सब उचटा जाता है।

अस्तु । एक रात को अचानके बाबू के पेट में ऐसा शूल उठा कि उन्हें किसी तरह कल न पड़ती थी। मारे पीड़ा के उनकी आँख निकली पड़ती थी, दाँत बेठे जाते थे। सब लोग घबड़ा गए । कई एक वैद्य और डॉक्टर बुलाए गए । दवाइयाँ भी चार-चार मिनट पर कई बार और कई किस्म की दी गई। पर दवाइयाँ तो कोई सजीवन बूटी हई नहीं कि गले के नीचे उतरते ही अमृत वन जायें । कितु अमीरी चोचलों में इतना सबर और धीरज कहाँ ? सब लोग दौड़-धूप में लगे हुए-