हाल में एक मुसिफ सुकर्रर होकर आए थे। यह कौन थे, क्या इनका मजहब था, कुछ पता न लगता था; कितु अपने रंग-ढग से नेचरिए जाहिर होते थे। पोशाक इनकी बिलकुल अॅगरेजी वजा की थी, यहाँ तक कि कभी-कभी अॅगरेजी टोपी (हैट) भी इस्तेमाल करते थे; खाने-पीने में भी इन्हें किसी तरह का परहेज़ न था, पैदाइश के तो हिंदू ही थे पर यह नहीं मालूम कि इनकी क्या जाति थी। कोई इन्हें कश्मीरी समझता था कोई इस समय के तालीमयाफ्ता पढ़े-लिखे लालाओं में मानता था। डाढ़ी और चुटिया दोनो इनके न थी, रंग भी गोरा था, इसलिये जियादह लोगों की यही राय थी कि यह कोई हाफकास्ट केरानी या योरपियन है। पंडित या वावू की उपाधि से इन्हें बड़ी चिढ़ थी, यह साहब बनने और अपने नाम के आगे मिस्टर लिखने की चाल बहुत पसंद करते थे, और अपने दोस्तों से इस बात की ताकीद भी कर दी थी। यह मिजाज या बर्ताव में अपने को सुशिक्षितों के सिरमौर मानते थे, पर दिल पर सुशिक्षा का असर पहुंचा हो, इसका कहीं कुछ लेश भी न था। चालाकी में अच्छे-खासे पट्ठे थे, दस-पंद्रह वर्ष मुंसिफ और सदराला रह कही कुछ थोड़ा- बहुत नीचा खाकर वल्कि पिट-पिटाकर भी आठो गाँठ कुम्मैद हो चुके थे । भॉड़ों की नकल है कि दो सौ जूते खाकर भी इज्जत न गॅवाई । अपना रग जमाने में तथा पाकेट गरम करने के फन मे यह पूरे उस्ताद गुरुओ के भी गुरु थे, बल्कि
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