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सौ अजान और एक सुजान

बाबुओं का सवाई डेहुड़ा खर्च हकीम साहब का हो गया। जोड़ने की कौन कहे, कर्जदार रहा किए। दूसरी बात हकीम साहब के यह भी जिहननशीन थी कि हुमा की यह सब कमाई जो इस समय बाबू को फंसा बेशुमार माल चीर रही है, वह भी तो आखिर मेरी ही है ; क्योंकि सिवा मेरे हुमा के और दूसरा है कौन, हुमा भी जाहिरा में तो हकीम से कुछ सरोकार न रखती थी, पर भीतर-भीतर दोनों एक ही थे। दोनो के सूरत- शकल में भी एक ऐसा मेल था कि ताड़बाजों के लिये बहुत कुछ शक करने की गुंजायश थी। रमा अपने दोनो लड़कों के कुढंग से सोने का घर मिट्टी होते देख भीतर-ही-भीतर चूर-चूर थी, खाना-पीना तक छोड़ दिया, और दुबलाकर लकड़ी-सी हो गई थी। सौ-सौ तदबीरें उनके सम्हलने की कर थकी. पर इन दोनो को राह पर आते न देख जहाँ तक हो सका कार- बार सब तोड़ बैठी। बाहर की दूकानें सब उठा दिया, केवल उतना ही मात्र रख छोड़ा जिसे वह अपने आप सम्हाल सकती थी, और जिसे इसने देखा कि उठा देने से बड़े सेठ हीराचंद के नाम की हलकाई होगी, और उसके स्थापित ठौर-ठौर धर्म- शाला, पाठशाला सदाबत इत्यादि का खर्च न सट सकेगा। दूसरी बात रमा को यह भी मालूम हुई कि एक चंदू को छोड और जितने लोग पुराने पुराने इस घर के असरइत थे, सबों ने, किसी को सम्हालनेवाला न पाकर. जिससे जहाँ जितना लूटते-खाते बना, मनमानता लूटा-खाया; मानो ये लोग सेठ