एक अक्षर न था, पर खुशनवीसी मे ईश्वर की देन उस पर थी। मानो इस फन को यह मा के पेट से ले उतरा था। किसी भाषा का कैसा ही बदखत या खुशखत लेख हो, यह जैसे-का- तैसा उतार देता था। दस रुपए सैकड़ा इसकी उजरत मुकर्रर थी, अर्थात् दस्तावेज वगैरह सौ रुपए का हो, तो उसकी बनवाई यह दस रुपया लेता था, दो सौ का हो, तो बीस, यों ही सौ-सौ पर दस बढ़ता जाता था । और बहुत-से फन इसे याद थे, पर उन सबों के जिकिर से हमें यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है । बुद्धदास शोकीन और तरहदारों में भी अपना औवल दरजा मानता था। उमर इसकी ४० के ऊपर आ गई थी। दॉत मुॅह पर एक भी बाकी न बचे थे तो भी पोपले और खोड़हे मुॅह में पान की बीड़ियाँ जमाय, सुरमे की धजियों से ऑख रॅग, केसरिया चदन का एक छोटा-सा बिदा माथे पर लगाय, चुननदार बालावर अगा पहन, लखनऊ के बारीक काम की टोपी या कभी-कभी, लट्टूदार पगड़ी बाँध जब बाहर निकलता था, तो मानो ब्रज का कॅधैया ही अपने को समझता था । होठ बड़े मोटे, रग ऐसा काला, मानो हब्श देश की पैदाइश का कोई आदमी हो, ऑख घुच्चू-सी, गाल चुचका, डील ठेगना, बाल खिचड़ी उस पर जुल्फ, गरदन कोतह, मुॅह घोड़े का-सा लबा, शैतानी और फसाद तथा काइयॉपन इसके एक-एक अग से बरसता था। यह विष की गॉठ अनंतपुर का रहनेवाला न था ; थोड़े दिनों से यहाँ
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