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सौ अजान और एक सुजान

आकर बसा था । कहा है-"समानशीलव्यसनेषु सख्यम्" नंदू और यह दोनों एक-से शील-सुभाव के थे, और नंदू की इससे पटती भी खूब थी, इसलिये अचरज क्या कि उसी ने इसे कहीं बाहर से बुलाकर अपने घर के पास ही टिका लिया था। इसे नंदू चचा कहता था, इससे मालूम होता है, कदाचित् कोई घर का रिश्ता भी इससे रहा हो ! नंदू भी, जो चालाकी में एकता था, इस घात से इसे और टिकाए था कि इसके दूसरा कोई और था ही नहीं, अंत को इस वज्र कृपण का धन सिवा मेरे कौन पा सकता है ! जो हो, एक रात को नंदू ने आकर इसका किवाड़ खटखटाया । इसने चुपके से आय किवाड़ खोल दिया। दोनो भीतर चले गए, और किवाड़ बंद कर लिया। नदू बोला-"चचा, बड़े बाबू ने आज आपको उस मामले के लिये याद किया है–आपकी उजरत कौड़ी ऊपर दिलवाऊँगा ।" यह बोला–"उजरत की कौन-सी बात है । मुझे तुमसे या बाबू से किसी तरह पर इनकार नहीं है।"


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चौदहवाँ प्रस्ताव

बह-वह मरैं बैलवा, बैठे खायँ तुरंग।

पाठक जन, आप लोगों को याद होगा, हमारे इस किस्से के पहले प्रस्ताव का पहला दृश्य एक घुड़सवार था, जो आधी रात के समय काग़ज़ का एक पुलिंदा लिए आया था,