प्राण की यात्रा होती है। वह दुष्कृती, जैसा यह बुड्ढा था, महीनों तक पड़े अनेक, यातना और यत्रणा भोगते हैं, पर प्राण-वियोग शरीर से नही होता।
एक दिन रात को यह कहरता-कहरता सो गया, और इसके सब पुराने नौकर भी नींद के बस हो गए कि नंदू ने ताली का गुच्छा, जो इसकी तकिया के नीचे रक्खा रहता था, धारे से खींच वह संदूक जिसे धनदास अपना प्राण समझता था, आहिस्ते से खोल, काग़ज़ का पुलिंदा उसमें से निकाल लिया, और संदूक फिर बंद कर ताली वैसे ही तकिया के नीचे रख दिया। इसने पुलिंदा उसी अहल्कारे को दिया और कहा-"तुम अभी जाकर इस पुलिंदे को बाबू साहब को दे आओ, पर खबरदार होशियार रहना, यह बड़े काम का कागज़ है, इसमें से कोई भी गिर जायगा, तो बड़ा हर्ज होगा।" अहल्कारा सलाम कर पुलिंदे को अपनी कमर में कस रवाना हुआ। नंदू भी जाकर चुपके सो रहा, पर अपनी इस अभिसंधि में कृतकार्य होने की खुशी में देर तक इसे नींद न आई, सोचता था "लाखों की जायदाद मालमताल अब मेरे बाबुओं को बेखरखसे हाथ लग जायगी, बाबू से चहारुम मेरा ठहर गया ही है, तब क्या हमीहम कुछ दिनों में देख पड़ेंगे। चहारुम क्या, यह बिलकुल माल मैं अपना ही समझता हूँ, क्योंकि बाबुओं को तो मैने अपने जाल में फंसा ही रक्खा है। बाबू के पास जो कुछ है, उसके सब कर्ता-धर्ता सिवाय मेरे दूसरा