पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/८६

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चौदहवाँ प्रस्ताव

है कौन। हा ! हा ! हा ! मैं भी अपने फन में क्या ही उस्ताद हूँ, कैसे अपनी डॉक जमा रक्खी है कि अब बाबू के दरबार में मैं-ही-मैं हूँ। उस उजड्ड पंडित चंदू ने हरचंद चाहा, कितना ही फटफटाया, पर उसकी एक भी दाल न गली। सब तरह पर बाबुओं को मैंने अपनी मूठी में करी तो लिया। छि.! यह पडित भी अहमकों की जमात का एक नमूना देख पड़ा ; बदतमीजी की यह बानगी है, मानो शऊर और समझ के चश्मे पर बड़ा भारी पत्थर का ढोंका रख दिया गया हो। खूबी यह कि कौड़ी-कौड़ी मात हो रहा है, फिर भी अब तक अपनी शरारत से बाज नहीं आता। मै भी मौका तजवीज रहा हूँ, बचा को ऐसा फॅसाऊॅगा कि अब की बार जड़-पेड़ से उखाड़ डालूँगा, और अनंतपुर में कहीं इसका निशान भी न रह जायगा। मैंने एक बार पहले भी संदूक को खोला था, ताकि देखूॅ इसमें क्या है, सिवाय और चीजों के उस पुलिंदे को भी पाया, जिसमें पचास हजार के कई किता सिर्फ नोट के उसमें थे। दस हजार का एक किता तो मैंने अपने लिए अलग उड़ा रक्खा । और भी कई एक दस्तावेज़ उसमें हैं। यहाँ से चलकर मैं सबों को ठीक करुँगा। इसीलिये तो बुद्धदास को अपने घर के पास ही टिका रक्खा है, और सब तरह की नाज़बरदारी उसकी उठा रहा हूँ। खासकर उस वसीयत को दुरुस्त करना है, जिसमें बुड्ढे ने मिट्ठूमल के लिये कुछ इशारा कर दिया है । मिट्ठू-ऐसे खूस देहकानी को इतनी