सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६३
पंद्रहवाॅ प्रस्ताव

टक्कर की थी, इसी से चदू से इसकी पटती भी थी और अनंतपुर की छोटी-सी बस्ती में दोनों का घर भी एक ही जगह पर वरन् सटा-सटा था। दोनो के घर के बीच केवल एक दीवाल-मात्र का अंतर था। गंभीरता या संकोच का यह जानी दुश्मन था । मुसिफो तक की मुख्तारी एक मामूली ढर्रे पर कर लेना, जो कुछ मिले, उतने ही से अपने लड़के-बालों को खाने-पीने से सब भाँति प्रसन्न रखना, 'न ऊधो के देने न माधो के लेने" और सॉझ को निश्चित लंबी तान सो रहना, केवल इतने ही को यह अपने जीवन का सार समझता था। अच्छा खाना, अच्छा पहनने का इसे हद से ज़ियादह शौक़ था, तेहवार और कचहरी में तातील का बड़ा मुश्ताक था। किसी के यहाँ जियाफत में शरीक होने का इसे बड़ा हौसिला था । किसी के यहाँ कुछ काम पड़ने पर दावत खाना या उसको बेवकूफ बनाय जियाफ़त दिलवाने में यह बहुत कम फ़र्क समझता था । सारांश यह कि इसका मुख्य उद्देश्य यही था कि जिसमे कुछ हॅसी व दिलबहलाव हो, वही करना । हर हाल में खुश रहना और दूसरों को खुश रखना इसका सिद्धांत था । इसी से क्या छोदे, क्या बड़े, सव उमर के लोगो से यह मिलता था. और उचित तथा योग्य बर- ताव से सबो को प्रसन्न रखता था। जिस तरह अपने हम- उमरवालों से मिलता था, उसी तरह कम उमरवाले लड़को से भी मिल उनको राजी कर देता था। वरन् इसके मसख़रे-