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[गान्धार की घाटी-रणक्षेत्र]

(तुरही बजती है, स्कंदगुप्त और बंधुवम्म के साथ सैनिकों को प्रवेश)

वंधु०-- वीरो! तुम्हारी विश्वविजयिनी वीरगाथा सुर-सुंदरियों की वीणा के साथ मन्द ध्वनि से नंदन में पूँज उठेगी। असम साहसी आर्य्य-सैनिक! तुम्हारे शस्त्र ने बर्बर हूणों को बता दिया है कि रण-विद्या केवल नृशंसता नहीं है। जिनके आतंक से आज विश्वविख्यात रूम-साम्राज्य पादाक्रांत है, उन्हें तुम्हारा लोहा मानना होगा और तुम्हारे पैरों के नीचे दबे हुए कंठ से उन्हें स्वीकार करना होगा कि भारतीय दुर्जेय वीर हैं। समझ लो-- आज के युद्ध में प्रत्यावर्त्तन नहीं है। जिसे लौटना हो, अभी से लौट जाय।

सैनिक-- आर्य-सैनिकों का अपमान करने का अधिकार महाबलाधिकृत को भी नहीं है! हम सब प्राण देने आये हैं, खेलने नहीं।

स्कंद०-- साधु! तुम यथार्थ ही जननी जन्म-भूमि की संतान हो।

सैनिक-- राजाधिराज श्री स्कंदगुप्त विक्रमादित्य की जय!

(चर का प्रवेश)

चर-- परम भट्टारक की जय हो!

स्कंद०-- क्या समाचार है?

चर-- देव! हूण शीघ्र ही नदी के पार होकर आक्रमण की प्रतीक्षा कर रहे है। परंतु, यदि आक्रमण न हुआ तो वे स्वयं आक्रमण करेंगे।

वंधु०-- और कुभा के रणक्षेत्र का क्या समाचार है?

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