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चतुर्थ अंक
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( विजया और अनन्तदेवी )
अनन्त०--क्या कहा?
विजया--मैं आज ही पासा पलट सकती हूँ। जो झूला ऊपर उठ रहा है, उसे एक ही झटके में पृथ्वी चूमने के लिये विवश कर सकती हूँ।
अनन्त०--क्यों? इतनी उत्तेजना क्यों है? सुनू भी तो।
विजया--समझ जाओ।
अनन्त०--नहीं, स्पष्ट कहो।
विजया--भटार्क मेरा है!
अनन्त--तो?
विजया--उस राह से दूसरों को हटना होगा।
अनन्त०--कौन छीन रहा है?
विजया--एक पाप-पङ्क में फंसी हुई निर्लज्ज नारी। क्या उसका नाम भी बताना होगा? समझो, नहीं तो साम्राज्य का स्वप्न गला दबाकर भंग कर दिया जायगा।
अनन्त०--(हँसती हुई) मूर्ख रमणी! तेरा भटार्क केवल मेरे कार्य्य-साधन का अस्त्र है, और कुछ नहीं। वह पुरगुप्त के ऊँचे सिंहासन की सीढ़ी है, समझो?
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