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स्कंदगुप्त
 


विजया--समझी; और तुम भी जान लो कि तुम्हारा नाश समीप है।

अनन्त०--(बनाती हुई) क्या तुम पुरगुप्त के साथ सिंहासन पर नहीं बैठना चाहती हो? क्यों--वह भी तो कुमारगुप्त का पुत्र है?

विजया--हाँ, वह कुमारगुप्त का पुत्र है, परन्तु वह तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न है! तुमसे उत्पन्न हुई सन्तान–-छिः!

अनन्त०--क्या कहा? समझकर कहना।

विजया--कहती हूँ, और फिर कहूँगी। प्रलोभन से, धमकी से, भय से, कोई भी मुझको भटार्क से नहीं वञ्चित कर सकता है। प्रणय-वञ्चिता स्त्रियाँ अपनी राह के रोड़े-विघ्नों–को दूर करने के लिये वज्र से भी दृढ़ होती हैं। हृदय को छीन लेनेवाली स्त्री के प्रति हृतसर्वस्वा रमणी पहाड़ी नदियों से भयानक, ज्वालामुखी के विस्फोट से भी वीभत्स, और प्रलय की अनल-शिखा से भी लहरदार होती है। मुझे तुम्हारा सिंहासन नहीं चाहिये। मुझे क्षुद्र पुरगुप्त के विलास-जर्जर मन और यौवन में ही जीर्ण शरीर का अवलम्व वांछनीय नहीं। कहे देती हूँ, हट जाओ, नहीं तो तुम्हारी समस्त कुमंत्रणाओं को एक फूँक में उड़ा दूँगी!

अनन्त०--क्या? इतना साहस! तुच्छ स्त्री! तू जानती है कि किसके साथ बात कर रही है? मैं वही हूँ--जो अश्वमेध-पराक्रम कुमारगुप्त से, बालों को सुगन्धित करने के लिये गंधचूर्ण जलवाती थी—जिसकी एक तीखी कोर से गुप्त-साम्राज्य डाँवाडोल हो रहा है, उसे तुम......एक सामान्य स्त्री! जा-जा, ले अपने भटार्क को;

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