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प्रथम अंक
 

श्यामा का नखदान मनोहर मुक्ताओं से ग्रथित रहा
जीवन के उस पार उड़ाता हँसी, खड़ा मैं चकित रहा
तुम अपनी निष्ठुर क्रीड़ा के विभ्रम से, बहकाने से
सुखी हुए, फिर लगे देखने मुझे पथिक पहचाने-से
उस सुख का आलिङ्गन करने कभी भूलकर आ जाना
मिलन-क्षितिज-तट मधु-जलनिधि में मृदु हिलकोर उठा जाना

कुमारदास--(प्रवेश करके) साधु!

मातृगुप्त--(अपनी भावना में तल्लीन जैसे किसीको न देख रहा हो) अमृत के सरोवर में स्वर्ण-कमल खिल रहा था, भ्रमर वंशी बजा रहा था, सौरभ और पराग की चहल-पहल थी। सवेरे सूर्य्य की किरणें उसे चूमने को लोटती थी, संध्या में शीतल चाँदनी उसे अपनी चादर से ढंक देती थी। उस मधुर सौन्दर्य, उस अतीन्द्रिय जगत् की साकार कल्पना की ओर मैंने हाथ बढ़ाया था, वहीं--वहीं स्वप्न टूट गया!

कुमारदास--समझ में न आया, सिंहल में और काश्मीर में क्या भेद है। तुम गौरवर्ण हो, लम्बे हो, खिंची हुई भौंहें हैं; सब होने पर भी सिंहलियो की घुँघराली लट, उज्ज्वल श्याम शरीर, क्या स्वप्न में देखने की वस्तु नहीं?

मातृगुप्त--(कुमारदास को जैसे सहसा देखकर) पृथ्वी की समस्त ज्वाला को जहाँ प्रकृति ने अपने बर्फ के अञ्चल से ढँक दिया है, उस हिमालय के--

कुमारदास--और बड़वानल की अनन्त जलराशि से जो संतुष्ट कर रहा है, उस रत्नाकर को--अच्छा जाने दो, रत्नाकर

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