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[पथ में भटार्क और उसकी माता]

कमला-- तू मेरा पुत्र है कि नहीं?

भटार्क–-- माँ! संसार में इतना ही तो स्थिर सत्य है, और मुझे इतने ही पर विश्वास है। संसार के समस्त लांछनों का मैं तिरस्कार करता हूँ, किस लिये? केवल इसीलिये कि तू मेरी माँ है, और वह जीवित है।

कमला-- और मुझे इसका दुःख है कि मैं मर क्यों न गई; मैं क्यों अपने कलङ्क-पूर्ण जीवन को पालती रही। भटार्क! तेरी माँ को एक ही आशा थी कि पुत्र देश का सेवक होगा, म्लेच्छों से पददलित भारतभूमि का उद्धार करके मेरा कलङ्क धो डालेगा; मेरा सिर ऊँचा होगा। परंतु हाय!

भटार्क-- माँ ! तो तुम्हारी आशाओं के मैने विफल किया? क्या मेरी खड्गलता आग के फूल नहीं बरसाती? क्या मेरे रण-नाद वज्र-ध्वनि के समान शत्रु के कलेजे नहीं कँपा देते? क्या तेरे भटार्क का लोहा भारत के क्षत्रिय नहीं मानते?

कमला-- मानते हैं, इसीसे तो और ग्लानि है।

भटार्क-- घर लौट चलो माँ! ग्लानि क्यों है?

कमला-- इसलिये कि तू देशद्रोही है। तू राजकुल की शांति का प्रलय-मेघ बन गया, और तू साम्राज्य के कुचक्रियों में से एक है। ओह! नीच! कृतघ्न!! कमला कलङ्किनी हो सकती है, परंतु यह नीचता, कृतघ्नता, उसके रक्त मे नही। (रोती है)

(विजया का प्रवेश)

विजया-- माता! तुम क्या रो रही हो? (भटार्क की ओर देख-

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