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तृतीय अंक
 


विजया–-हाँ राजकुमारी ! ( सिर झुका लेती है )

देवसेना--विजया, अच्छा हुआ, तुमसे भेंट हो गई; मुझे कुछ पूछना था।

विजया–-पूछना क्या है ?

देवसेना--क्या जो तुमने किया है, उसे सोच-समझकर ? कही तुम्हारे दम्भ ने तुमको छल तो नहीं लिया ? तीव्र मनोवृत्ति के कशाधत ने तुम्हे विपथगामिनी तो नही बना दिया ?

विजया--राजकुमारी ! मैं अनुगृहीत हूँ । उस कृपा को नहीं भूल सकती जो आपने दिखाई है । परन्तु अब और प्रश्न करके मुझे उत्तेजित करना ठीक नही ।

देवसेना--( आश्चर्य से ) क्यों विजया ! मेरे सखी-जनोचित सरल प्रश्न में भी तुम्हें व्यङ्ग सुनाई पड़ता है ? ।

विजया--क्या इसमें भी प्रमाण की आवश्यकता है ? राजकुमारी ! आज से मेरी ओर देखना मत । मुझे कृत्या अभिशाप की ज्वाला समझना और ......

देवसना--ठहरो, दम ले लो ! संदेह के गर्त्त में गिरने के पहले विवेक का अवलम्बन ले लो विजया !

विजया-–हताश जीवन कितना भयानक होता है-यह नहीं जानती हो ? उस दिन जिस तीखी छुरी को रखने के लिये मेरी हँसी उड़ाई जा रही थी, मैं समझती हूँ कि उसे रख लेना मेरे लिये आवश्यक था । राजकुमारी ! मुझे न छेड़ना । मैं तुम्हारी शत्रु हूँ। ( क्रोध से देखती है )

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