जो बर्ताव देखने में आता है; उन दोनों पर विचार करेंगे तो इस बात को मानने के कारण मिल जायँगे कि लोगों का सच्चा मतलब इससे विरुद्ध है। पुरुषों की बातों से ऐसा मालूम होता है कि वे स्त्रियों के लिए जिन कर्त्तव्यों का होना प्रकृतिदत्त बताते हैं, वे वास्तव में स्त्रियों के स्वभाव से प्रतिकूल हैं; क्योंकि ऊपर कहे हुए दो कर्त्तव्यों के अलावा भी और काम करने की आज़ादी यदि उन्हें हो, यानी अपनी पसन्द के मुताबिक़ जीवन-निर्वाह के और काम भी वे पूरी आजादी से कर सकती हों, या जिस काम में उनका मन लगता हो उसमें अपनी विद्या, बुद्धि और समय का उपयोग पूरी आज़ादी के साथ कर सकती हों,-तो जो काम उनके स्वभाव के अनुकूल कह कर उनके गले बाँध दिये जाते हैं, उन्हें वे राज़ी से नहीं करेंगी-इस बात को पुरुष जानते होने चाहिएँ। यदि पुरुष-वर्ग का स्त्रियों के प्रति यही ख़याल हो तो उन्हें प्रकट कर देना चाहिए। आज तक स्त्रियों को पराधीन रखने के विषय पर जितने लेख, पुस्तकें लिखी गईं और व्याख्यान दिये गये उनका छिपा हुआ मतलब निम्नलिखित ही है, किन्तु यदि कोई पुरुष खुले-खुले
भी यह प्रतिपादन कर कि,-"समाज-संगठन को बनाये रखने के लिए यह अत्यावश्यक है कि स्त्रियाँ विवाह करके सन्तान उत्पन्न करें। यदि स्त्रियों का यह कर्त्तव्य न बनाया जाय तो राज़ी-ख़ुशी से वे इसे करने को तैयार नहीं हो
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