सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
( ९३ )


चाहिए था वह हो चुका। लोग बार-बार इस बात की पुकार मचाते हैं कि सुधार और ईसाई धर्म इन दोनों के कारण स्त्रियों का जितना सुधार होना चाहिए उतना हो चुका। पर सच बात तो यह है कि आज भी स्त्री का दरजा पति के घर की दासी के बराबर ही है और जो क़ानून की दृष्टि में देखेंगे तो उसका स्थान ग़ुलामों से बढ़ कर नहीं है। विवाह के समय उसे जन्मभर पति की ताबेदारी में रहने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती है, और उससे इस प्रतिज्ञा को पूरी कराने के लिए क़ानून सदा तैयार रहता है। बहुत से कहेंगे कि पति की आज्ञा में रहना स्त्री का मर्यादित कर्त्तव्य ही है, क्योंकि उदाहरण के तौर पर यदि पति स्त्री को किसी दोष में शामिल रहने के लिए कहे तो उसे क़ानून के अनुसार नाँ हीं कर देने का हक़ है; पर यह तो निश्चित है कि बाक़ी और सब बातों में उसे पति का कहना करना ही पड़ेगा-पति का यही अनियंत्रित अधिकार है। पति की आज्ञा के बिना स्त्री को किसी काम के करने की इजाज़त नहीं है। स्त्री जो कुछ सम्पत्ति प्राप्त करे उस पर नियमानुसार उसके पति का हक़ होता है। वारिसों के हक़ से छूट कर जो सम्पत्ति स्त्री की कहलाई उसी पर झट से पति का हक़ हुआ। इस स्थिति में पड़ी हुई इंग्लैंड देश की स्त्रियाँ अन्य देशों के ग़ुलामों से भी ख़राब थीं। उदाहरण के तौर पर रोमन लोगों के क़ायदे के अनुसार प्रत्येक ग़ुलाम की दासधन (Peculium) नामक