विरुद्ध करते थे तो वह धर्म-मन्दिर का आश्रय ले लेती थी और अपनी बाक़ी जीवनी तपश्चर्या और संन्यास में खो देती थी; कन्या जब यह मार्ग स्वीकार कर लेती थी तब पिता का उस पर अधिक ज़ोर नहीं चलता था, क्योंकि उस समय धर्माचार्यों की सत्ता बड़ी प्रबल थी। विवाह होते ही उसका पति उसके शरीर और आत्मा दोनों का स्वामी बन जाता था, तथा पति को अधिकार होता था कि वह अपनी स्त्री की चाहे जैसी
दशा करे। मारने वाला वही होता था और जिलाने वाला भी वही, अन्य किसी को बीच में बोलने का बिल्कुल अधिकार नहीं था, कायदा भी पति की सत्ता के आगे व्यर्थ हो जाता था। पति को अधिकार होता था कि वह जब चाहे तब अपनी स्त्री का त्याग कर देवे, पर पति के विरुद्ध इस प्रकार का अधिकार स्त्री को नहीं होता था। यह स्थिति ईसाई धर्म के प्रचार से पहले थी। इंग्लैण्ड के पुराने क़ायदों के अनुसार पुरुष अपनी स्त्री का पति, प्रभु या "लॉर्ड" माना जाता था। पति को अपनी स्त्री का राजा भी कह सकते थे; क्योंकि पतिहत्या के दोष को क़ानून में छोटा सा राजद्रोह (petty treason) कहा गया है। और पति की हत्या करने वाली स्त्री को राजद्रोह से भी अधिक सज़ा दी जाती थी, वह जीती आग में जलाई जाती थी!! ऐसी अत्याचार से भरी हुई रूढ़ियाँ इस समय बन्द होगई हैं, इसलिए लोग समझने लगे हैं कि विवाह-सम्बन्ध में जो कुछ सुधार होना
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