हो, और उसका बर्ताव सर्व्वथा ऐसा ख़राब हो कि उसकी ओर से स्त्री के मन में धिक्कार आती हो, फिर भी उसे ऐसा काम करने से जिसमें मनुष्य-प्राणी की घोर अवमानना भरी है, अर्थात् स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उससे रतिसुख प्राप्त करने से क़ायदा उसे नहीं रोक सकता। इस प्रकार स्त्री को अपने मन, आत्मा और शरीर बेच कर भी पतित से पतित और नीच से नीच ग़ुलामी जन्म भर भोगनी पड़ती है; इतना ही नहीं बल्कि अपने पेट से पैदा हुए बच्चे के विषय में भी स्त्री का किसी प्रकार का अधिकार नहीं माना जाना। लड़के पर स्त्री और पुरुष दोनों का समान प्रेम होता है, और उसकी भलाई में दोनों को प्रसन्नता होती है, पर यह सब कुछ होते हुए भी क़ानून की नज़र से लड़का बाप की मिल्कियत समझा जाता है। और क़ायदे में मा-बाप का जो थोड़ा सा हक़ भी माना जाता है, उसे भी बाप ही भोगता है। बाप की सम्मति के बिना मा लड़के के विषय में अपने आप कुछ नहीं कर सकती। बाप के मरने के बाद भी मा लड़के की वारिस नहीं करार दी जाती,-केवल वसीयत के अनुसार जिसे वह अधिकारी बना गया हो वही वारिस होता है। यदि बाप चाहे तो लड़के को मा से अलग कर सकता है, और यह
भी कर सकता है कि उन दोनों को कभी मिलन न देवे, उनका पत्र-व्यवहार भी न होने देवे। क़ानून
ने स्त्रियों की यह दशा बना डाली है, और उनके हाथ में ऐसा कोई साधन है ही