लिए ग़ुलामी का दरवाज़ा छोड़ कर और कोई रास्ता ही नहीं खोला, उन्हें इतनी आजादी ज़रूर मिलनी चाहिए कि वे ग़ुलामी के लिए अपना मालिक अपने-आप पसन्द करें, इससे उनके दुखों में थोड़ी-बहुत कमी हो ही होगी। इतनी सी भी आज़ादी न देना-उन्हें ग़ुलामी और नीची से नीची ग़ुलामी भुगवाने के समान है। क्योंकि जो मालिक अपने ग़ुलामों से अत्यन्त घातकी व्यवहार करते थे, उन्हें क़ानूनन अपने ग़ुलामों को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता था; पर इङ्गलैण्ड जैसे सुधरे हुए देश में पति अपनी स्त्री पर चाहे जैसा घातकी व्यवहार करे, पर जब तक न्यायालय में उसे व्यभिचारी साबित न किया जाय तब तक उस बिचारी का उस कसाई से छुटकारा नहीं हो सकता।
२-अपने बोलने में अतिशयोक्ति लाने की मेरी इच्छा नहीं है, और मेरा विषय भी ऐसा है जिस में अतिशयोक्ति की आवश्यकता भी नहीं है। मैंने क़ानून के अनुसार स्त्रियों की दशा का दिग्दर्शन कराया है, लोग प्रत्यक्ष रीति से उनके साथ कैसा व्यवहार करते हैं यह मैंने नहीं लिखा। बहुत से देशों के क़ानून उसे अमल में लाने वाले लोगों से भी अधिक ख़राब होते हैं, और बहुत से क़ानून जो क़ानून के रूप में टिके रहते हैं उसका कारण यह होता है कि उनका प्रयोग कहीं-कहीं ही होता है। क़ानून में स्त्री-पुरुषों की जैसी कल्पना की गई है, वैसी ही विवाहित स्त्री-पुरुषों की