तो जिन बातों में पड़ने से उनका सर्व्वथा नुक़सान होना सम्भव होता है, उन में भी वे अपनी ही मनमानी करा लेती हैं। बहुत बार स्त्रियों का प्रस्ताव नीति-विरुद्ध होता है-उस में बुद्धिमत्ता का लेश भी नहीं होता, यदि पुरुष उन बातों को अपने ही विचार से करें तो लाभ होना अधिक सम्भव भी होता है, ऐसा होने पर भी उन्हें स्त्रियों की सलाह के अनुसार चलना पड़ता है। किन्तु राजनैतिक बातों के अनुसार कुटुम्ब-सञ्चालन में भी सत्ता का लाभ इस स्वाधीनता की हानि का बदला नहीं है। स्वाधीनता खोने से जो हानि होती है वह सत्ता प्राप्त होने से पूरी नहीं हो सकती। यह सत्य है कि पुरुष को अपने अधिकार में करके स्त्री उन बातों पर भी अपना हक़ जमा लेती है जिन पर उसका हाथ पहुँच ही नहीं सकता-पर इससे अपने सच्चे हक़ स्थापित करने की सामर्थ्य उसमें नहीं आती। सुलतान के ज़नाने में जो बड़ी दासी होती है, उसके नीचे और बहुत सी दासियाँ होती हैं और उन पर वह अत्याचार भी करती है-पर सचमुच क्या उसकी स्थिति पसन्द करने लायक है। इच्छित स्थिति तो यह है कि उसे दूसरे की दासी होना ही न चाहिए, उस
ही प्रकार अन्य दासियों पर अधिकार भी न भोगना चाहिए। यदि कोई स्त्री पति के अस्तित्त्व में अपना अस्तित्त्व सम्पूर्ण रोति से मिला देवे, जिन बातों में दोनों का समान लाभ हो उनमें अपनी इच्छा को प्रधान न रख कर पति की इच्छा को
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