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पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/१५६

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समझा जाता था। उससे पीछे जो ज़माना संसार से गुज़रा उस में सबलों को निर्बलों की रक्षा का सङ्गठन हुआ और सबलों के प्रति निर्बलों को सब प्रकार से सन्तुष्ट रहने का पाठ पढ़ाया गया-इस ही सङ्गठन पर नीति की रचना हुई। किन्तु जो नीति एक ख़ास समाज के अनुरूप बनाई गई हो, वह नीति भिन्न तत्त्वों पर सङ्गठित किये गये समाज में मान्य क्यों होनी चाहिए। पराधीनता के तत्त्वों पर बनाई हुई नीति हमने बहुत दिनों तक चलने दी है; उसके बाद पराक्रम, औदार्य्य आदि उदात्त गुणों पर स्थापित की हुई नीति का अनुभव भी हम अनुभव कर चुके हैं; और यह वर्त्तमान समय न्याय की नींव पर नीति रचने का समय है। यह मानना चाहिए कि, प्राचीन काल में जिस-जिस समय समाज-सङ्गठन में समानता का तत्त्व मिलाया जाता था, उस-उस समय से न्याय-देवता नीति-मन्दिर में अपना अधिकार करते थे। प्राचीन काल के स्वाधीन प्रजासत्ताक राज्यों में यही होता था। किन्तु सब से अच्छे प्रजासत्तात्मक राज्य में भी समानता के तत्त्व का अनुसरण सब मनुष्यों के व्यवहार में नहीं होता था। केवल पुरुष-वर्ग वाले पुरवासी उसका लाभ उठाते थे। ग़ुलाम, स्त्रियाँ और जिन विदेशियों को नगर-निवासी-पन का अधिकार न होता था उन सबके साथ वही शक्ति वाला अत्याचारी नियम काम में लाया जाता था। पीछे रोमन लोगों के उदाहरण और ईसाई धर्म्म की