समान अधिकार वालों का सहवास ही नैतिक शिक्षा की मुख्य शाला है। यद्यपि यह तत्त्व कई पीढ़ियों तक लोगों के दिलों में नहीं घुसेगा, सर्व्वमान्य नहीं होगा, फिर भी इसकी सचाई में किसी प्रकार का अन्देशा वही है। मनुष्य-जाति की नैतिक शिक्षा आज तक "लाठी उसकी भैंस" वाले नियम पर बनाई गई है और ऐसे नियमों पर जताई हुई प्रथा का यही सब से अच्छा उपाय है। जङ्ली आदमी अपनी बराबर वाले में किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखते, क्योंकि उन समाजों में बराबर का होना ही शत्रु या प्रतिस्पर्धी होने के समान है। समाज का सङ्गठन ऊपर लटकती हुई साङ्कल के समान हैं, प्रत्येक व्यक्ति अपने एक पड़ौसी से ऊपर और दूसरे से नीचा है। एक मनुष्य पर यह ख़ुद हुकूमत करता है और दूसरा उस पर हुकूमत करता है। इसलिए वर्त्तमान नीति सेव्य-सेवक-भाव लिए हुए है। दुर्भाग्य से आज्ञा देनी और आज्ञा पालन करनी, ये दोनों बातें आवश्यक हो गई हैं, पर सचमुच मनुष्य-जीवन की यह उत्कष्ट स्थिति नहीं। मनुष्य-जाति की वास्तविक स्थिति समानता या बरोबरी की है। वर्त्तमान समय के सुधार की धारा जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है, वैसे ही वैसे सेव्य-सेवक-भाव का सङ्गठन ढीला पड़ता जाता है, और सब कहीं समानता के अधिकारों का विकाश होता जाता है। पुराने ज़माने की लोक-नीति इस प्रकार की थी कि, उस समय सत्ता को सम्मान देकर चलना प्रत्येक का कर्त्तव्य
पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/१५५
दिखावट
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
(१३२)