पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/१६७

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करना चाहता हूँ वह सीधा और सरलता से समझने योग्य है। सम्पत्ति के सम्बन्ध में ऐसे ढँग से व्यवहार होना चाहिए मानो स्त्री-पुरुष का विवाह ही नहीं हुआ; अर्थात् स्त्री की सम्पत्ति पर स्त्री का अधिकार रहे और पुरुष की सम्पत्ति पर पुरुष का-यही सम्बन्ध विवाह और विवाहित दशा में सदैव बना रहना चाहिए। विवाह के परिणाम स्वरूप जो सन्तान होंगी, उनकी भलाई के लिए सम्पत्ति की जो व्यवस्था की जायगी, उस में इस नियम के द्वारा किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होगी। विवाह से दो भिन्न-भिन्न जीवन एक होते हैं। विवाह के विषय में इस प्रकार की जो विशाल कल्पना है; उस में सम्पत्ति और धन के भिन्न-भिन्न रहने से विरोध और असंगतता का दोष आता है; और स्वयं मुझे एकत्रता का विचार बहुत रुचिकर होता है। पर इस से मैं सहमत तभी हूँगा जब दोनों के हृदय एक हो गये हों और दोनों में तिलार्द्ध भिन्नता भी शेष न रह गई हो। पर "तेरा सो मेरा और मेरा सो है ही" इस नियम पर जो सम्बन्ध होता है वह मुझे ज़रा भी रुचिकर नहीं। यदि इस प्रकार के सम्बन्ध से स्वयं मुझे लाभ हो रहा हो तब भी मैं ऐसे सम्बन्ध को कभी स्वीकार करने का नहीं।

१६-स्त्रियों पर इस प्रकार का प्रचलित अन्याय, सामान्य लोगों की दृष्टि में भी और बातों से पहले पड़ता है, और अन्य अनर्थों को हटाये बिना भी यदि इसे हटाना चाहें तो