पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/१८

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न्यायानुसार सती होना बन्द हुए बहुत वर्ष बीते*[१]। इस समय भी कभी-कभी सती होने की बात सुनाई पड़ जाती है। आज-कल की सामाजिक धारणा इस प्रकार की है कि व्यक्ति समाज के हित के लिए बना है, इसलिए प्रत्येक अवस्था में समाज को लाभ पहुँचाते जाना भी उसका कर्तव्य है। किन्तु देशी राज्यों में यह प्रथा सहसा बन्द नहीं हुई;-१८३९ ई॰ में महाराज रणजीत सिंह के साथ कई रानियाँ सती हुईं। नेपाल के महाराज जङ्गबहादुर के साथ भी कई रानियाँ सती हुई थीं।

सती के अलावा हिन्दू-शास्त्रों ने विधवा का दूसरा मार्ग नियोग कहा है। यदि पति की मृत्यु के समय स्त्री निपुत्री हो तो वह अपने पति को पुत्रवान् की गति प्राप्त कराने के लिए, इष्ट बन्धुओं की सम्मति से, ज्येष्ठ वा कनिष्ट देवर तथा इनके न होने पर सगोत्रजसे-"एकमुत्यादयेत्युत्रं न द्वितीयं कथंच न†[२]" किन्तु यह पुत्रोत्पत्ति कर्त्तव्य ही समझ कर होनी चाहिए, लालसा की तृप्ति के लिए नहीं। यदि, "वर्तेयातां तु कामतः" तो पति को स्वर्ग-प्राप्ति की जगह "तावुभौ पतितौ स्याताम्"‡[३] वे दोनों नरक में जायेंगे।


  1. *-१८२९ ई॰ के १७ वें रेग्युलेशन के अनुसार सती होना और उसकी मदद करना दोष है।
  2. †-मनु॰ अ॰ ९, श्लोक ६०।
  3. ‡-मनु॰ अ॰ ९, श्लोक ६३। यम-संहिता का अवतरण। को॰ डाय॰ भा॰ २ पृ॰ ४६८।