गतभर्तृका, बाला, तरुणी, वृद्धा, सापत्य या निरपत्य कैसी ही स्त्री हो, "न द्वितीयश्च साध्वीनां क्वचिङ्गर्त्तोपदिश्यते*[१]" इतना ही नहीं, हिन्दू-शास्त्र कहते हैं,—"न तु नामापि गृह्वीयात् पत्यौ प्रेते परस्वतु†[२]" तथा "न विवाह विधायुक्तं विधवा वेदनं पुनः‡[३]" किन्तु निम्न जातियों में इस नियम की रक्षा नहीं हो सकी। पुराने जमाने में भी संयुक्त प्रान्त, गुजरात, महाराष्ट्र और बंगाल में निम्न जातियों में पुनर्विवाह होता था§[४]। किन्तु उच्च वर्णी के लिये, "सेह निन्दामवाप्नोति पतिलोकाच्च हीयते॥[५]"। महाराष्ट्र देश के इतिहास में लिखा है कि पेशवाओं के समय में पुनर्विवाह पर कर लिया जाता था। किन्तु अब सन् १८५६ ई॰ के १५ वें एक्ट के अनुसार उच्च वर्ण की स्त्रियों को पुनर्विवाह की आज्ञा है।
पुनर्विवाह की चर्चा सब से पहले ब्रह्मसमाज के प्रवर्तक राजा राममोहन राय ने उठाई थी और पीछे से पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने यह विषय उठाया। पुनर्विवाह पर विद्यासागर का सब से पहला लेख १८५४ ई॰ में निकला था, तब से अब तक इस विषय पर वाद-विवाद होते हुए समाज में दो पक्ष हो गये हैं। उत्तर भारत में इस विषय