पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/२१

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१)


को सबसे पहले ऋषि दयानन्द ने उठाया, और अब उनकी स्थापित की हुई आर्यसमाज ही इस विषय को चला रही है।

जब भारतीय विधवाओ को पुनर्विवाह की आज्ञा नहीं, नियोग पशुधर्म है, तब सती होने के सिवाय क्या और कोई मार्ग नहीं है? कात्यायन ऋषि के मतानुसार जो विधवा परमात्मा पर विश्वास रख कर आत्मसंयम से जीवन व्यतीत करती है वह अरुन्धती के समान है। मनु ने विधवा के ऐसे जीवनक्रम पर लिखा है, "मृतेभर्तरि साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता। स्वर्गगच्छत्यपुत्राऽपि.. .."†[१]। आदि वचनों से स्वर्ग की प्राप्ति बताई है। विष्णुसंहिता में लिखा है कि, जिसे ब्रह्मचर्य से रहना अशक्य मालूम होता हो उसे चिता पर जल कर मरना ही चाहिए‡[२]। यदि वह जीवित रहे तो भी, "त्यक्तकेशा तपसा शोधयेहपुः"§[३]। इसके अलावा ताम्बूल, शैया, अभ्यंग तथा आहार-विहार से सदा के लिए किनारा कर लेवे ¶[४]। पति की मृत्यु के अनन्तर विधवा को पुत्र की देख-रेख में रहना चाहिए, क्योंकि, "मृत भर्तरि पुत्रस्तु

  • —कील° डाय° भा° २, पृ° ४६५।
  1. †—मनु° अ° ५, श्लो° १६०।
  2. ‡—विष्णुसंहिता, अ° २५, श्लो° १४।
  3. §—व्यास-संहिता, अ° १, श्लो° ५३।
  4. ¶-कोल° डाय° भा° २, पृ° ४६०।