यह बात तो कुटुम्ब से बाहर वाली प्रतिष्ठा की है, पर कुटुम्ब के भीतर ऐसी दशा होती है कि जो स्त्री किसी बात में अपने मत को प्रधान रखने की कोशिश करे, या जो स्त्री बात-बात में पुरुषों की हाँ में हाँ मिलाना छोड़ कर अपना नाम आगे बढ़ाने की इच्छा करे—तो वह अपने कुटुम्ब की प्रेमपात्री नहीं रहती-अर्थात् जो स्त्री कोई भला काम करके भलाई अपने नाम पर नहीं लेती, बल्कि पुरुषों को ही उसे दे देती है, और ख़ुद पुरुषों के पीछे ही बनी रहती है तो वह स्त्री अच्छी समझी जाती है, और जिस स्त्री का बर्ताव इस से उल्टा होता है उसी की निन्दा की जाती है वही बुरी कही जाती है। जो मनुष्य उस व्यक्ति की तुलना कर सकता होगा जिसने अपनी तमाम उमर कुटुम्ब या समाज में एक ही प्रकार से बिताई हो-और उस एक ही प्रकार के कारण उसके मन पर उस स्थिति का जो बड़ा भारी प्रभाव हुआ होगा,
इसे जो समझ सकता होगा, वह झट समझ जायगा कि स्त्री-पुरुष की प्रकृति में और मानसिक प्रवृत्ति में जो भेद दीखता है, तथा ख़ास जिन भेदों के कारण स्त्रियाँ पुरुषों से कम समझी जाती हैं-ये सब भेद पैदा होने का कारण दोनों की सामाजिक तथा कौटुम्बिक स्थिति के भेद हैं। इस भेद के कारण उन के मनों पर पैदा होने वाला न्यारा-न्यारा असर और इस असर के कारण ख़ास तरह का बर्ताव रखने को
टेव है।
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