अधिक होता है। पतिके वारिसों का उस पर कोई हक
नहीं है।
पति की जीवित दशा में तो हिन्दू स्त्री का कोई अधि- कार है ही नहीं, किन्तु उसकी विधवा दशा में भी उस पर कैसा अमानुषी व्यवहार किया जाता था, सो हम संक्षेप से ऊपर लिख चुके । पाठकों के लिए विचार का मौका है कि वे पुरुषों के बनाये धर्मशास्त्र की दृष्टि से देख लेवें कि इस में पुरुषों का पक्ष अधिक लिया गया है या कम ? हमारी बुद्धि जहाँ तक विचार करती है-यह न्याय धर्म का नाम लेकर सर्वथा पक्षपात से भरा हुआ है। हिन्दू देवियाँ धर्म का नाम लेकर अन्याय से गुलामी ( Bondage) में डाली जाती है, और उनके हक अनुदारता से क्षुद्र कर दिये जाते हैं। भाज-कल का उन्नत यूरोप किसी समय ऐसे ही क्षुद्र विचारों में डूब रहा था, स्त्रियाँ ऐसी ही दासता में पड़ी हुई थौं। संसार में सब से प्रथम उन्नति करने वाले “ग्रीस" और "रोम" में भी यह दशा थी। ग्रीस को पूर्ण उन्नति के समय में स्त्रियों के विषय में एक लेखक ने लिखा है:-
"स्त्रियाँ प्रायः मकान के पिछले भाग में रहती हैं, पुरुषों के साथ उनका मिलना-जुलना असम्भव है। उनका घूमना फिरना प्रायः घर ही के भीतर हो लेता है। यदि किसी समय वे बाहर जाती हैं तो एक आदमी उनके साथ जाता
- --मनु० अ०३ श्लो०४६ ।