की पराधीनता के कारण पुरुषों के व्यवहार पर जो बुरा प्रभाव पड़ता है, उसे नियमित रखने के लिए वह उदार कल्पना बहुत अच्छी थी। किन्तु मनुष्य-जाति के अन्यान्य सुधारों के के साथ यह नैतिक कल्पना भी बदल गई, तथा इस के स्थान को एक नई नैतिक कल्पना ने ले लिया। उस ज़माने की समाज-व्यवस्था ऐसी थी कि भला या बुरा परिणाम होने का सब आधार मुख्य व्यक्ति के पराक्रम पर अवलम्बित था—अर्थात् जो मनुष्य सब से अधिक पराक्रमी होता था उसी के हाथ में समाज की व्यवस्था चली जाती थी, इसलिए समाज के भले या बुरे का आधार केवल उसी व्यक्ति का व्यवहार होता था। ऐसे ढँग से सङ्गठित हुए समाजों में पारस्परिक प्रेम पैदा कराना, प्रत्येक व्यक्ति के आचरण में सुजनता, औदार्य्य, सौमनस्य आदि गुणों का सञ्चार करना ही 'शिवेलरी' का मुख्य उद्देश था। किन्तु आज-कल के ज़माने में सैनिक बातों से लगाकर प्रत्येक काम-काज के विषयों का निर्णय किसी ख़ास व्यक्ति की मन्शा पर नहीं होता-अर्थात् घटना को एक मनुष्य जैसी घटाना चाह वैसी नहीं घटा सकता; बल्कि प्रत्येक विषय का निर्णय मनुष्यों के एकत्र निर्णय पर होता है। इसलिए ही युद्ध-विषयक बातों से लोगों का पक्षपात हट गया और कला-कौशल आदि औद्योगिक प्रवृत्तियाँ समाज में जाग उठीं। इस ज़माने में यह तो नहीं कहा जा सकता
कि उदारता आदि गुणों का अभाव है, पर वर्त्तमान समाज
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