की व्यवस्था पहले की तरह उन गुणों पर ही अवलम्बित नहीं है। इस ज़माने की नैतिक जीवनी की नींव न्याय और बुद्धिमत्ता पर रक्खी गई है। प्रत्येक मनुष्य स्वामी के अधिकारों को सम्मान की दृष्टि से देखता है और स्वावलम्बी बन कर अपना आधार आप ही बनता है। वीरकाल के नैतिक व्यवहार पर नियमानुसार कोई क]eनून न था, इसलिए सभी अपकृत्य निश्चिन्तता से किये जाते थे। लोग बैठ कर आपस में सदाचार-सम्पन्न व्यक्ति की प्रशंसा करते थे, इसलिए सदाचार की ओर प्रेरणा करने वाली वृत्ति लोगों से प्रशंसा कराने की इच्छा थी—बड़ाई करवाने के लिए लोग इस ओर ध्यान देते थे। पर यह असर बहुत थोड़ों पर होता था। क्योंकि नीति की मजबूती शासन के द्वारा होती है-अर्थात् शासन के डर से ही लोग नीतिभ्रष्ट होने से बचा करते हैं। केवल इस बात के मान लेने से ही कि नीति पर चलना अच्छा है, इससे लोगों में सम्मान होता है, लोग इज्ज़त की नज़र से देखते हैं-यह मान लेने ही से समाज की व्यवस्था रक्षित नहीं रहती। क्योंकि केवल ऐसी समझ के ही कारण नीति के मार्ग पर चलने वाले व्यक्तियों की संख्या बहुत ही कम है, बाक़ी और मनुष्यों को यह समझ अनीति के मार्ग से नहीं हटा सकती, और बहुतों के मनों पर तो ऐसी समझ का बिन्दु-विसर्ग भी असर नहीं होता। इस समय सुधार के प्रताप से मनुष्य-समाज को जो संयुक्त सामर्थ्य प्राप्त हुई है, इस के कारण
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