पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/२७८

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भी ख़याल नहीं होता कि इस काम का असर सम्पूर्ण मनुष्य-जाति पर कैसा होगा। इसका नतीजा यह होता है कि परोपकार या दानधर्म की जो आदत उन्हें पसन्द आ जाती है, उस पर वे कभी यह विचार नहीं करतीं कि इससे नुक़सान होना भी मुमकिन है या नहीं—और यदि उन्हीं के परोपकार से कभी सामने नुक़सान भी नज़र पड़ जाय तो उनकी समझ में यह बात नहीं आती कि यह नुक़सान ख़ुद उन्हीं के सबब से हुआ है। आज-कल जितने परोपकार किये जाते हैं वे सब बिना सोचे-विचारे और सिर्फ़ छोटी सी प्रेरणा से होते हैं, और इनकी तादाद बढ़ती जा रही है। आज-कल संसार का यह सर्वमान्य सिद्धान्त हो गया है कि हर एक आदमी को अपने जीवन-निर्वाह के लिए मिहनत करनी ही चाहिए-दूसरे के सिर अपनी ज़िन्दगी डालने का उसे ज़रा भी हक़ नहीं है; इस ही प्रकार हर एक आदमी को अपने किये का फल भोगना ही चाहिए—यह सृष्टि का सर्वमान्य नियम है। इसलिए जिस परोपकार के परिणाम में मनुष्य अपने कर्मों का फल भोगने के कर्त्तव्य से मुक्त हो, और निज के जीवन-निर्वाह का कर्त्तव्य उससे उतर कर समाज के सिर पड़े-ऐसा परोपकार किसी प्रकार पसन्द नहीं किया जा सकता। क्योंकि इसके कारण स्वावलम्बन, आत्मनिग्रह, और स्वमान आदि समाज को उन्नत करने वाले आवश्यक गुणों से लोगों के भाव शिथिल होते हैं, और बहुत बार तो ये गुण

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