आत्मसंयम और सन्तोष का आनन्द प्राप्त होता है उसके हज़ारवें हिस्से का भी अनुभव उस बिचारी को नहीं हो सकता, बल्कि यदि पति अपने सुखों की बलि चढ़ाता है तो अनजान ही में इस बिचारी के सर्व्वस्व का समावेश उस में हो जाता है। इसलिए कोई मनुष्य चाहे जितना निस्स्वार्थी और अपने सुखों को कुछ भी न समझने वाला उदार हो किन्तु अपनी स्त्री को इस स्थिति में लाने से पहले वह हिचक ही जाता है। यदि किसी उदार व्यवहार के काम में लाने पर जीवन के प्रत्यक्ष सुखों को कुछ भी हानि न पहुँचती हो और केवल कुटुम्ब की सामाजिक स्थिति का ही सवाल सामने हो, तब भी उसके हार्दिक विचारों में बड़ी आनाकानी होने लगती है और मन अस्वस्थ हो जाता है। जो पुरुष घर-गृहस्थी और
बालबच्चों वाला हो उसका पल्ला तो उन्होंने पकड़ रक्खा है। पुरुष लोकमत या रूढ़ि का अनादर कर सकता है, किन्तु संसार में उसके विचारों का सम्मान होना उसके शत्रु कभी नहीं देख सकते—उसके शत्रुओं के लिए यह सब से अधिक महत्त्व का प्रश्न होता है। पुरुष समाज के विचारों की अवहेलना कर सकता है, और उसके समान विचार वाले पुरुष उसकी क़दर भी करते हैं-इस ही से वह अपने मन
का समाधान कर लेता है और अपना पूरा बदला समझ लेता है। किन्तु जो स्त्री उसके आश्रय में होती है उसके मन का समाधान करने या उसका योग्य बदला देने का कोई साधन
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